प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम ||
भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायु:कामार्थसिद्धये || १ ||

प्रथमं वक्रतुंडं च एकदंतं द्वितीयकम ||
तृतीयं कृष्णपिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम || २ ||

लंबोदरं पंचमं च षष्ठं विकटमेव च ||
सप्तमं विघ्नराजेंद्रं धूम्रवर्णं तथाष्टमम || ३ ||

नवमं भालचंद्रं च दशमं तु विनायकम ||
एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम || ४ ||

द्वादशितानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः ||
न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो || ५ ||

विद्यार्थी लभते विध्यां धनार्थी लभते धनम ||
पुत्रार्थी लभते पुत्रन मोक्षार्थी लभते गतिम || ६ ||

जपेद्गणपतिस्तोत्रं षडभिर्मासै: फलं लभेत ||
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशय: || ७ ||

अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत ||
तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादत: || ८ ||

इति श्रीनारदपुराणे संकटनाशनं नाम श्रीगणपतिस्तोत्रं संपूर्णम ||

भीमरुपी महारुद्रा, वज्रहनुमान मारुती| वानरी अंजनीसुता, रामदुता प्रभंजना||१||
महाबली प्राणदाता, सकळा उठवी बळे| सौख्यकारी दु:खहारी, धूर्त वैष्णव गायका|| २||
दीननाथा हरीरुपा, सुंदरा जगदंतरा| पातालदेवता हंता, भव्य सिंदुर लेपना|| ३||
लोकनाथा, जगन्नाथा, प्राणनाथा पुरातना| पुण्यवंता, पुण्यशिळा, पावना परितोषका|| ४||
ध्वजांगे उचली बाहो, आवेशे लोटला पुढे| काळाग्नी काळरुद्राग्नी, देखता कांपती भये|| ५||
ब्रम्हांडे माईली नेणों आंवाळे दंतपंक्ती| नेत्राग्नी चालील्या ज्वाळा, भ्रुकुटी ताठिल्या बळे|| ६||
पुच्छ ते मुर्डीले माथा, किरीटी कुंडले बरी| सुवर्ण कटी कांसोटी , घंटा किंकिणी नागरा|| ७||
ठकारे पर्वता ऐसा, नेटका सडपात़ळु| चपळांग पाहता मोठे, महाविद्युल्लतेपरी|| ८||
कोटीच्या कोटी उड्डाणे, झेपावे उत्तरेकडे| मंद्रादीसारखा द्रोणु क्रोधे उत्पाटिला बळे|| ९||
आणिला मागुती नेला, आला गेला मनोगती| मनासी टाकीले मागे, गतिसी तुळणा नसे|| १०||
अणुपासुनि ब्रम्हांडाएवढा होत जातसे, तयासी तुळणा कोठे, मेरुमंदार धाकुटे || ११||
ब्रम्हांडाभोवते वेढे, वज्रपुच्छे करु शके| तयासी तुळणा कैंची, ब्रम्हांडी पाहता नसे|| १२||
आरक्त देखिले डोळा, ग्रासिले सूर्यमंडळा| वाढता वाढता वाढे, भेदिले शून्यमंडळा|| १३||
धनधान्यपशुवृद्धी, पुत्रपौत्रसमस्तही|पावती रुपविद्यादी स्तोत्रपाठेकरुनिया|| १४||
भूतप्रेतसमंधादि रोगव्याधीसमस्तही| नासती तुटती चिंता आनंदे भीमदर्शने|| १५||
हे धरा पंधराश्लोकी लाभली शोभली बरी| दृढदेहो, निसंदेहो, संख्याचंद्रकळागुणे|| १६||
रामदासी अग्रगण्यु, कपीकुळासी मंडणु| रामरुपी अंतरात्मा, दर्शने दोषनासती|| १७||
|| इती श्री रामदासकृतं संकटनिरसनं मारुतीस्तोत्रं सम्पूर्णं ||

जपाकुसुम संकाशं
काश्यपेयं महद्युतिं
तमोरिसर्व पापघ्नं
प्रणतोस्मि दिवाकरं (रवि)

दधिशंख तुषाराभं
क्षीरोदार्णव संभवं
नमामि शशिनं सोंमं
शंभोर्मुकुट भूषणं (चंद्र)

धरणीगर्भ संभूतं
विद्युत्कांतीं समप्रभं
कुमारं शक्तिहस्तंच
मंगलं प्रणमाम्यहं (मंगळ)

प्रियंगुकलिका शामं
रूपेणा प्रतिमं बुधं
सौम्यं सौम्य गुणपेतं
तं बुधं प्रणमाम्यहं (बुध)

देवानांच ऋषिणांच
गुरुंकांचन सन्निभं
बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं
तं नमामि बृहस्पतिं (गुरु)

हिमकुंद मृणालाभं
दैत्यानां परमं गुरूं
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं
भार्गवं प्रणमाम्यहं (शुक्र)

नीलांजन समाभासं
रविपुत्रं यमाग्रजं
छायामार्तंड संभूतं
तं नमामि शनैश्वरं (शनि)

अर्धकायं महावीर्यं
चंद्रादित्य विमर्दनं
सिंहिका गर्भसंभूतं
तं राहूं प्रणमाम्यहं (राहू)

पलाशपुष्प संकाशं
तारका ग्रह मस्तकं
रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं
तं केतुं प्रणमाम्यहं (केतु)

फलश्रुति (हा श्लोक रोज म्हणल्याने कोणती फळे मिळतात):
इति व्यासमुखोदगीतं
य पठेत सुसमाहितं
दिवा वा यदि वा रात्रौ
विघ्नशांतिर्भविष्यति
नर, नारी, नृपाणांच
भवेत् दु:स्वप्न नाशनं
ऐश्वर्यंमतुलं तेषां
आरोग्यं पुष्टिवर्धनं
ग्रह नक्षत्रजा पीडास्तस्कराग्नि समुद्भवा
ता: सर्वा: प्रशमं यान्ति व्यासो ब्रुतेन संशय:
इति श्री व्यासविरचित आदित्यादि नवग्रह स्तोत्रं संपूर्णं

देवराज्यसेव्यमानपावनाघ्रिपंकजम्
व्यालयज्ञसूत्रमिंदूशेखरं कृपाकरम्|
नारदादि_योगिवृंद वंदितं दिगंबरम्
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

भानुकोटिभास्करं भवाब्दितारकं परं
नीलकण्ठमीप्सिथार्थ_दायकं त्रिलोचनम|
कालकालमम्बुजाक्षमक्षशूलमक्षरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

शूलटंकपाशदण्डपाणिमादिकारणं
श्यामकायमादिदेवमक्षरं निरामयम|
भीमविक्रम प्रभुं विचित्र तांडवप्रियं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

भुक्तिमुक्ति_दायकं प्रशस्तलोकविग्रहं
भक्तवस्तलं स्थितं समस्तलोकविग्रहं|
विनिकण्वन्मनोज्ञ्हेम्किंकिणीलस्तकटिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

धर्मसेतूपालकं त्वधर्ममार्ग्नाशकम्
कर्मपाशमोचकम् सुशर्मदारकम् विभुम्|
स्वर्णवर्णशेष्पाश_शोभितांगमण्डलं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

रत्नपादुकाप्रभाभिरामपादयुग्मकम्
नित्यमद्वितीयमिष्ट दैवतं निरंजनम्|
मृत्यु दर्प नाशनं करालदंष्ट्र मोक्षणम्
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

अट्टहासभिन्नपद्मजाण्ड्कोशसंततिं
दृष्टिपातनष्टपापजालमुग्र_शासनं
अष्टसिद्धिदायकं कपालमालिकाधरं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

भूतसंघनायकं विशालकिर्तीदायकं
काशिवास_लोकपुण्यपापशोधकं विभुम्|
नितिमार्गकोविदम् पुरातनम् जगत्पतिं
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे|

कालभैरवाष्टकम् पठन्ति ये मनोहरं
ज्ञानमुक्ति साधनम् विचित्रपुण्यवर्धनम्|
शोकमोह्दैन्यलोभकोपताप्_नाशनम्
प्रयान्ति कालभैरवांघ्रिसन्निधिम् नरा धृवम्
काशिकापुराधिनाथ कालभैरवम् भजे

|| श्री गणेशाय नम: ||

ॐ तच्छं योरावृणीमहे | गातुं यज्ञाय |
गातुं यज्ञपतये |
दैवी स्वस्तिरस्तु नः | स्वस्तिर्मानुषेभ्यः |
ऊर्ध्वं जिगातु भेषजम् |
शं नो अस्तु द्विपदे | शं चतुष्पदे ||

ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् |
स भूमिं विश्वतो वृत्वाSत्यतिष्ठ्द्दड्गुलम् || १ ||

पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् |
उतामृतत्वस्येशानो यद्न्नेनातिरोहति || २ ||

एतावानस्य महिमाSतो ज्यायांश्च पूरुषः |
पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि || ३ ||

त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोSस्येहाभवत्पुनः |
ततो विष्वड्व्यक्रामत्साशनानशने अभि || ४ ||

तस्माद्विराळजायत विराजो अधिपूरुषः |
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाभ्दूमिमथो पुरः || ५ ||

यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत |
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धवि: || ६ ||

तं यज्ञं बहिर्षि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः |
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये || ७ ||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् |
पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये || ८ ||

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे |
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत || ९ ||

तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः |
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः || १० ||

यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् |
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरु पादा उच्येते || ११ ||

ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः |
ऊरुतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत || १२ ||

चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत |
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत || १३ ||

नाभ्या आसीदनरिक्षं शीर्षणो द्यौ: समवर्तत |
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा
लोकाँअकल्पयन् || १४ ||

सप्तास्यासन्परिधयस्त्रि: सप्त समिधः कृता: |
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् || १५ ||

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि
धर्माणि प्रथमान्यासन् |
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे
साध्या: सन्ति देवा: || १६ ||

जटाटवी-गलज्जल-प्रवाह-पावित-स्थले
गलेऽव-लम्ब्य-लम्बितां-भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्
डमड्डमड्डमड्डम-न्निनादव-ड्डमर्वयं
चकार-चण्ड्ताण्डवं-तनोतु-नः शिवः शिवम् .. १..

जटा-कटा-हसं-भ्रम भ्रमन्नि-लिम्प-निर्झरी-
-विलोलवी-चिवल्लरी-विराजमान-मूर्धनि .
धगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके
किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम .. २..

धरा-धरेन्द्र-नंदिनी विलास-बन्धु-बन्धुर
स्फुर-द्दिगन्त-सन्तति प्रमोद-मान-मानसे .
कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि
क्वचि-द्दिगम्बरे-मनो विनोदमेतु वस्तुनि .. ३..

जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्फणा-मणि प्रभा
कदम्ब-कुङ्कुम-द्रव प्रलिप्त-दिग्व-धूमुखे
मदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्त्व-गुत्तरी-यमे-दुरे
मनो विनोदमद्भुतं-बिभर्तु-भूतभर्तरि .. ४

सहस्र लोचन प्रभृत्य-शेष-लेख-शेखर
प्रसून-धूलि-धोरणी-विधू-सराङ्घ्रि-पीठभूः
भुजङ्गराज-मालया-निबद्ध-जाटजूटक:
श्रियै-चिराय-जायतां चकोर-बन्धु-शेखरः .. ५..

ललाट-चत्वर-ज्वलद्धनञ्जय-स्फुलिङ्गभा-
निपीत-पञ्च-सायकं-नमन्नि-लिम्प-नायकम्
सुधा-मयूख-लेखया-विराजमान-शेखरं
महाकपालि-सम्पदे-शिरो-जटाल-मस्तुनः .. ६..

कराल-भाल-पट्टिका-धगद्धगद्धग-ज्ज्वल
द्धनञ्ज-याहुतीकृत-प्रचण्डपञ्च-सायके
धरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्रचित्र-पत्रक
-प्रकल्प-नैकशिल्पिनि-त्रिलोचने-रतिर्मम … ७..

नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्
कुहू-निशी-थिनी-तमः प्रबन्ध-बद्ध-कन्धरः
निलिम्प-निर्झरी-धरस्त-नोतु कृत्ति-सिन्धुरः
कला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः .. ८..

प्रफुल्ल-नीलपङ्कज-प्रपञ्च-कालिमप्रभा-
-वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचिप्रबद्ध-कन्धरम् .
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदांधकछिदं तमंतक-च्छिदं भजे .. ९..

अखर्व सर्व-मङ्ग-लाकला-कदंबमञ्जरी
रस-प्रवाह-माधुरी विजृंभणा-मधुव्रतम् .
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्त-कान्ध-कान्तकं तमन्तकान्तकं भजे .. १०..

जयत्व-दभ्र-विभ्र-म-भ्रमद्भुजङ्ग-मश्वस-
द्विनिर्गमत्क्रम-स्फुरत्कराल-भाल-हव्यवाट्
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्ग-तुङ्ग-मङ्गल
ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः .. ११..

दृष-द्विचित्र-तल्पयोर्भुजङ्ग-मौक्ति-कस्रजोर्
-गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्वि-पक्षपक्षयोः .
तृष्णार-विन्द-चक्षुषोः प्रजा-मही-महेन्द्रयोः
समप्रवृतिकः कदा सदाशिवं भजे .. १२..

कदा निलिम्प-निर्झरीनिकुञ्ज-कोटरे वसन्
विमुक्त-दुर्मतिः सदा शिरःस्थ-मञ्जलिं वहन् .
विमुक्त-लोल-लोचनो ललाम-भाललग्नकः
शिवेति मंत्र-मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् .. १३..

इदम् हि नित्य-मेव-मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं
पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धि-मेति-संततम् .
हरे गुरौ सुभक्ति-माशु याति नान्यथा गतिं
विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् .. १४..

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः
शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे .
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः .. १५.

दिनमपि रजनी सायं प्रातः, शिशिरवसन्तौ पुनरायातः |
काल:क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायु: ||१||

भज गोविन्दं भज गोविन्दं भज गोविन्दं मूढमते |
प्राप्ते संनिहिते मरणे, नहि नहि रक्षति डुकृञकरणे ||धृ.||

अग्रे वन्हि: पृष्ठे भानू, रात्रौ चुबुकसमर्पितजानु: |
करतलभिक्षा तरूतलवासस्तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ||२||

यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः |
पाश्चाद्धावति जर्जरदेहे, वार्तां पृच्छति कोSपि न गेहे ||३||

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशःअ, काषायाम्बरबहुकृतवेषः |
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः, उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ||४||

भगवद्गीता किंचिदधीता, गड्गाजललवकणिका पीता |
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा, तस्य यमः किंकुरूते चर्चाम् ||५||

अड्गं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम् |
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ||६||

बालस्तावत्क्रीडासक्तस्तरूणस्तावत्तरूणीरक्तः |
वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः, परे ब्रह्मणि कोSपि न लग्नः ||७||

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननीजठरे शयनम् |
इह संसारे खलु दुस्तारे, कृपयाSपारे पाहि मुरारे ||८||

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः, पुनरपि पक्ष: पुनरपि मासः |
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं, तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम् ||९||

वयसि गते कः कामविकारः, शुष्के नीरे कः कासारः |
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो, ज्ञाते तत्वे क: संसारः ||१०||

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं, मिथ्यामायामोहावेशम् |
एतन्मानसवसादिविकारं, मनसि विचारय वारंवारम् ||११||

कस्त्वं कोSहं कुत आयातः, का मे जननी को मे तात: |
इति परिभावय सर्वमसारं, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम् ||१२||

गेयं गीतानामसहस्रं, ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम् |
नेयं सज्जनसंगे चित्तं, देयं दीनजनाय च वित्तम् ||१३||

यावज्जीवो निवसति देहे, कुशलं तावत्पृच्छति गेहे |
गतवति वायौ देहापाये, भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ||१४||

सुखतः क्रियते रामाभोगः, पश्चाद्धन्त शरीरे रोग: |
यद्यपि लोके मरणं शरणं, तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ||१५||

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः, पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः |
नाहं न त्वं नायं लोकस्तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ||१६||

कुरूते गड्गासागरगमनं, व्रतपरिपालनमथवा दानम् |
ज्ञानविहीने सर्वमनेन, मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन ||१७||

|| इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रं संपूर्णम् ||

बहू श्रापिता कष्टला अंबरुषी! तयाचे स्वये श्रीहरी जन्म सोशी!!
दिला क्षीरसिंधू तया उपमानी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

धुरू लेकरूं बापुडे दैन्यवाणे! कृपा भाकिता दीधली भेट जेणे!!
चिरंजीव तारांगणी प्रेमखाणी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

गजेंद्रू महासंकटी वास पाहे! तयाकारणे श्रीहरी धावताहे!!
उडी घातली जाहला जीवदानी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

अजामेळ पापी तया अंत आला! कृपाळूपणे तो जनी मुक्त केला!
अनाथासि आधार हा चक्रपाणी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

विधीकारणे जाहला मस्त्य वेगी! धरी कूर्मरुपे धरा पृष्ठभागी!!
जना रक्षणाकारणे नीच योनी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

महाभक्त प्रल्हाद हा कष्टवीला! म्हणोनी तया कारणे सिंव्ह झाला!!
न ये ज्वाळ विशाल संनीध कोणी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

कृपा भाकिता जाहला वज्रपाणी! तयाकारणे वामनू चक्रपाणी!
द्विजाकारणे भार्गवू चापपाणी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

अहल्येसतीलागि आरण्यपंथे! कुडावा पुढे देव बंदी तयाते!
बळे सोडिता घाव घाली निशाणी! नुपेक्षी कदा राम दासाभिमानी!

तये द्रौपदीकारणे लागवेगे! त्वरे धावतो सर्व सांडूनि मागे!!
कळीलागी जाला असे बौद्ध मौनी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!

अनाथा दिना कारणे जन्मताहे! कलंकी पुढे देव होणार आहे!!
जया वर्णिता शिणली वेदवाणी! नुपेक्षी कदा देव भक्ताभिमानी!!

उदासिन हे वृत्ती जीवी धरावी| अती आदरे सर्व सेवा करावी||
सदा प्रीती लागो तुझे गुण गाता| रघूनायका मागणे हेचि आता||

सदा सर्वदा योग तुझा घडावा| तुझे कारणी देह माझा पडावा||
उपेक्षूं नको गुणवंता अनंता| रघूनायका मागणे हेचि आता||

नको द्रव्य दारा नको येरझारा| नको मानसी ज्ञानगर्वे फुगारा||
सगुणी मना लावि रे भक्तिपंथा | रघूनायका मागणे हेचि आता ||

मनी कामना कल्पना ते नसावी| कुबुद्धी कुडी वासना नीरसावी||
नको संशयो तोडि संसारव्यथा | रघूनायका मागणे हेचि आता||

समर्थापुढे काय मागो कळेना| दुराशा मनी बैसली हे ढळेना||
तुटो संशयो नीरसी सर्व चिंता| रघूनायका मागणे हेचि आता||

ब्रिदाकारणे दीन हाती धरावे| म्हणे दास भक्तांस रे उद्धरावे|
सुटे ब्रीद आम्हासि सोडूनि जाता| रघूनायका मागणे हेचि आता||

सहस्र शीर्ष देव विश्वाक्ष विश्वशभुवम् ।
विश्वै नारायण देव अक्षर परम पदम् ॥१॥

विश्वत परमान्नित्य विश्व नारायण हरिम् ।
विश्व एव इद पुरुष तद्विश्व उपजीवति ॥२॥

पति विश्वस्य आत्मा ईश्वर शाश्वत शिवमच्युतम् ।
नारायण महाज्ञेय विश्वात्मान परायणम् ॥३॥

नारायण परो ज्योतिरात्मा नारायण पर ।
नारायण पर ब्रह्म तत्त्व नारायण पर ।
नारायण परो ध्याता ध्यान नारायण पर ॥४॥

यच्च किचित् जगत् सर्व दृश्यते श्रूयतेऽपि वा ।
अतर्बहिश्च तत्सर्व व्याप्य नारायण स्थित ॥५॥

अनन्त अव्यय कवि समुद्रेन्त विश्वशभुवम् ।
पद्म कोश प्रतीकाश हृदय च अपि अधोमुखम् ॥६॥

अधो निष्ठ्या वितस्त्यान्ते नाभ्याम् उपरि तिष्ठति ।
ज्वालामालाकुल भाती विश्वस्यायतन महत् ॥७॥

सन्तत शिलाभिस्तु लम्बत्या कोशसन्निभम् ।
तस्यान्ते सुषिर सूक्ष्म तस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम् ॥८॥

तस्य मध्ये महानग्नि विश्वार्चि विश्वतो मुख ।
सोऽग्रविभजतिष्ठन् आहार अजर कवि ॥९॥

तिर्यगूर्ध्वमधश्शायी रश्मय तस्य सन्तता ।
सन्तापयति स्व देहमापादतलमास्तक ।
तस्य मध्ये वह्निशिखा अणीयोर्ध्वा व्यवस्थिता ॥१०॥

नीलतोयदमध्यस्थद्विद्युल्लेखेव भास्वरा ।
नीवारशूकवत्तन्वी पीता भास्वत्यणूपमा ॥११॥

तस्या शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थित ।
स ब्रह्म स शिव स हरि स इन्द्र सोऽक्षर परम स्वराट् ॥१२॥

ऋत सत्य पर ब्रह्म पुरुष कृष्ण पिङ्गलम् ।
ऊर्ध्वरेत विरूपाक्ष विश्वरूपाय वै नमो नम ॥१३॥

ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि ।
तन्नो विष्णु प्रचोदयात् ॥१४॥

घालीन लोटांगण वंदीन चरण । डोळ्यांनी पाहिन रूप तुझे ।
प्रेमें आलिंगीन आनंद पूजन । भावे ओवाळिन म्हणे नामा ।।

त्वमेव माता पिता त्वमेव । त्वमेव बन्धु: सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव । त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा । बुध्यात्मना वा प्रकृति स्वभावात् । करमि यद्यत् सकलं परस्मै । नारायणायेती समर्पयामि ।।

अच्युतं केशवं राम नारायणम् कृष्णदामोदरं वासुदेवं भजे। श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभम् जानकीनायकं रामचंद्र भजे ।।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृ्ष्ण कृ्ष्ण हरे हरे ।।

 

मंत्रपुष्पांजली मंत्र 

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तनि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।

ते ह नाकं महिमान : सचंत यत्र पूर्वे साध्या : संति देवा : ।।

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने ।

नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे ।

स मस कामान् काम कामाय मह्यं।

कामेश्र्वरो वैश्रवणो ददातु कुबेराय वैश्रवणाय ।

महाराजाय नम: ।

ॐ स्वस्ति। साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं

वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं

वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं

समंतपर्यायीस्यात् सार्वभैम: सार्वायुष आं

तादापरार्धात् पृथिव्यै समुद्रपर्यंताया एकेराळिति

तदप्येष: श्लोको भिगीतो मरूत: परिवेष्टारो

मरूतस्यावसन् गृहे ।

आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्र्वेदेवा: सभासद इति ।।

एकदंतायविघ्महे वक्रतुण्डाय धीमहि ।

तन्नोदंती प्रचोदयात् ।

मंत्रपुष्पांजली समर्पयामि ।।